( a poem written after the announcement to uproot the subsidy )
अतीत काल से ही
पैवंद पहचान है गरीबी की //
लाखों करोड़ों भारतीय
पैवंद लगे चादर के बल पर जीते हैं
जिसे ओढ़ते वक़्त
टेढा करना पड़ता है घुटना //
उन्हें नहीं दिखता
सरकारी पैवंद
जो उन चादरों में लगाए गए हैं
पैवंद हट जाने से
मुहाल हो गया उनका जीना //
सरकार ...
अब अश्वाश्नो की सुई से
उसे सिल देगी //
एकदम सच्ची और सार्थक पंक्तियाँ , बबन जी ...
ReplyDeleteबेहतरीन और सार्थक रचना..
ReplyDelete:-)
बहुत सही ..
ReplyDeleteबबनजी, बहुत सार्थक अभिव्यक्यति।।अपने जीवन की पुराने यादों मे चला गया था, जब मेरी मां कमीज़ पर पैबंद लगा देती थी।।
ReplyDeleteवाह, बहुत ही सटीक अभिव्यक्ति....!!
ReplyDeleteसटीक एवं सार्थक अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत सच्चाई
ReplyDeleteवाह! क्या बात है!
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