अभी कल की ही बात है
थोडा सा रद्दी कपडा
मैंने भिगोया पानी में
पोछ ( साफ़ ) डाले
सारे धूल
जो जमे थे
मेरे घर के
खिडकियों के शीशे पर //
आज धूप भी खिलकर आई थी
कमरे के अंदर //
काश !!!
कितना अच्छा होता
एक भींगे कपडे से
मैं उस धूल को पोछ पाता
जो मैंने
जिंदगी के रेस में
साथ चलने वालों के
चेहरों पर फेकें हैं//
थोडा सा रद्दी कपडा
मैंने भिगोया पानी में
पोछ ( साफ़ ) डाले
सारे धूल
जो जमे थे
मेरे घर के
खिडकियों के शीशे पर //
आज धूप भी खिलकर आई थी
कमरे के अंदर //
काश !!!
कितना अच्छा होता
एक भींगे कपडे से
मैं उस धूल को पोछ पाता
जो मैंने
जिंदगी के रेस में
साथ चलने वालों के
चेहरों पर फेकें हैं//
Ati sunder vivaran hai Babban ji.Aise hi likhte rahiye aur sngrah prakashit karein.
ReplyDeletebeautifull,,,,a superb ,,,,
ReplyDeletePurane kapde se dhool saaf karne ko aap ne jivan ki philosophy ko bakhubi se samzaya hai.Par aisa dimag hone nahi deta dil ke chahne par bhi.
ReplyDeleteVery nice....
ReplyDeleteबब्बन जी आपने क्या बिम्ब प्रस्तुत किये हैं , सराहनीय !
ReplyDeleteआशा है आप यहाँ भी पधारेंगें !
http://dhirendrakasthana.blogspot.in
vicharniye
ReplyDeleteye hai aam jindgi, Bahut hi sundar prastuti bhaiya ji.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
क्या बात है ,संवेदनशीलता आत्म निरिख्सन का सम्यक भाव सार्थक अभिव्यक्ति मिस्ट.पांडे जी ..
ReplyDeletehridaysparshi rachana
ReplyDeleteकाश मैं पोछ पाता वो धूल जो जो मैने ज़िन्दगी की रेस में साथ चलने वालों के चेहरे पर फेंकी है.......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पन्क्ति सर
आभार
bahut barhiya.
ReplyDeleteआपकी कविता पढ़कर तो यही लगा सर जी ... की गलत करने का मलाल दिल के किसी कोने में छुपा रहता है
ReplyDeleteLazabaab Abhiyvqti !!
ReplyDeletesahi mai gambhir kabita hai.badhaee.mai yehi chahta tha.
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